मैं मुसाफिर हूँ........................
ज़िन्दगी क़े सफ़र में,
मैं मंज़िल तलाशती हूँ
मैं मुसाफिर हूँ
घुमती हूँ मैं मुक़ामो के शहरों में,
कभी इस शहर तो कभी उस शहर
सुख के घर का कोई ठिकाना नहीं
बस चलती रहती हूँ मैं यूँही, कोशिशों के रास्ते पर
कभी आती है असफलता की भयंकर आँधी
और चिर के रख देती हैं आत्मविश्वास का कवच,
लेकिन सी देती हूँ मैं उसे फ़िर
उम्मीद के धागे से बनाने फिर वही कवच
कभी गिरती हूँ
खाकर ठोकर मुश्किलो की दीवारो से,
लेकिन उठ जाती हूँ फिर
हिम्मत के इटो के सहारे से
कभी मिलति है तन्हाइयो की भीड़
और धूंधला सी जाती है नज़र
लेकिन विश्वास के ऐनक के सहारे
दिख जाती है कहीँ दूर खड़ी मेरी मंज़िल
और फ़िर मैं निकल पड़ती हूँ,
क्योंकि मैं मुसाफ़िर हूँ,
मैं मंजिल तलाशती हूँ |
Manjil to mil hi jayegi bahtakte hue idhar udhar ..
ReplyDeleteGumrahh to woh hai jo ghar se nikalte hi nahi